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कविता

मोहब्बत का दर्पण 


मुहब्बत के वो दिन भी क्या दिन थे जहाँ ग़म  सरगम रोज़ गाया करते थे !! 

वो मेरी इबादत थी और उसकी रोज़ा वो .....!!

वादा हमने भी किया था किसी से  और उसने भी ...

बस फर्क इतना था की हमारे वादे में वो थीउसके इरादों में कई और ....!

 सौदा तो नहीं ना पर क्या था ...? 

समझते समझाते हम भी ना समझ हो गये और वो भी !! 

मैं उसके लिए रोता था .. बेशक वो भी रोती थी उसके लिए .. 

पर्दा था ..आइना था .. मोहब्बत की नुमाइश में दोनो का मुआईना  था !!

 ज़िस्म के ज़रूरतों में या मैं अंधा था या वो !!! 

सामने कभी लगा ही नहीं प्रीत नहीं था .... वहाँ प्रीत भी था वो भी थी और ....:

मैं कहीं दूर से क़रीब होने का मृगतिष्णा ले कर सौभाग्य स्वप्न में जी रहा था!!!! 

सरगम 

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